🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
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🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹🔱🔅श्रीमद्भगवद्गीता🔅🔱🌹
🌹श्रीमद्भगवद्गीता :
🌹 साधक-संजीवनी :
🌟 प्रथम अध्याय :
( गत ब्लाग से आगे )
इस कारण अर्जुन में छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत हो जाए और मोह जाग्रत होने से अर्जुन जिज्ञासु बन जाए, जिससे अर्जुन को निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवों के कल्याण के लिए गीता का महान उपदेश दिया जा सके- इसी भाव से भगवान ने यहाँ ‘पश्यैतान् समवेतान् कुरून्’ कहा है। नहीं तो भगवान् ‘पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति’- ऐसा भी कह सकते थे; परंतु ऐसा कहने से अर्जुन के भीतर युद्ध करने का जोश आता; जिससे गीता के प्राकट्य का अवसर ही नहीं आता! और अर्जुन के भीतर का प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकाने की चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है, तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान भक्त के भीतर छिपे हुए मोह को पहले जाग्रत करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान अर्जुन के भीतर छिपे हुए मोह को ‘कुरून् पश्य’ कहकर जाग्रत कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे।
अर्जुन कहा था कि ‘इनको मैं देख लूँ’- ‘निरीक्षे’ ‘अवेक्षे’; अतः यहाँ भगवान को ‘पश्य’- ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं थी। भगवान को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिए था। परंतु भगवान ने रथ खड़ा करके अर्जुन के मोह को जाग्रत करने के लिए ही ‘कुरून् पश्य’- ऐसा कहा है।
कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम- इन दोनों में बहुत अंतर है। कुटुम्ब में ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्ब के अवगुणों की तरफ खयाल जाता ही नहीं; किंतु ‘ये मेरे हैं- ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान का भक्त में विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्त के अवगुणों की तरफ भगवान का खयाल जाता ही नहीं; किंतु ‘यह मेरा ही है’- ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में क्रिया तथा पदार्थ की और भगवत्प्रेम में भाव की मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेह में मूढ़ता की और भगवत्प्रेम में आत्मीयता की मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेह में अंधेरा और भगवत्प्रेम में प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेम में तल्लीनता के कारण कर्तव्य-पालन में विस्मृति तो हो सकती है, पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेह में कुटुम्बियों की और भगवत्प्रेम में भगवान की प्रधानता होती है।’
( शेष आगे के ब्लाग में )
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
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🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
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: मोबाइल नम्बर .9009290042 :
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इस कारण अर्जुन में छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत हो जाए और मोह जाग्रत होने से अर्जुन जिज्ञासु बन जाए, जिससे अर्जुन को निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवों के कल्याण के लिए गीता का महान उपदेश दिया जा सके- इसी भाव से भगवान ने यहाँ ‘पश्यैतान् समवेतान् कुरून्’ कहा है। नहीं तो भगवान् ‘पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति’- ऐसा भी कह सकते थे; परंतु ऐसा कहने से अर्जुन के भीतर युद्ध करने का जोश आता; जिससे गीता के प्राकट्य का अवसर ही नहीं आता! और अर्जुन के भीतर का प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकाने की चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है, तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान भक्त के भीतर छिपे हुए मोह को पहले जाग्रत करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान अर्जुन के भीतर छिपे हुए मोह को ‘कुरून् पश्य’ कहकर जाग्रत कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे।
अर्जुन कहा था कि ‘इनको मैं देख लूँ’- ‘निरीक्षे’ ‘अवेक्षे’; अतः यहाँ भगवान को ‘पश्य’- ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं थी। भगवान को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिए था। परंतु भगवान ने रथ खड़ा करके अर्जुन के मोह को जाग्रत करने के लिए ही ‘कुरून् पश्य’- ऐसा कहा है।
कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम- इन दोनों में बहुत अंतर है। कुटुम्ब में ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्ब के अवगुणों की तरफ खयाल जाता ही नहीं; किंतु ‘ये मेरे हैं- ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान का भक्त में विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्त के अवगुणों की तरफ भगवान का खयाल जाता ही नहीं; किंतु ‘यह मेरा ही है’- ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में क्रिया तथा पदार्थ की और भगवत्प्रेम में भाव की मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेह में मूढ़ता की और भगवत्प्रेम में आत्मीयता की मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेह में अंधेरा और भगवत्प्रेम में प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेम में तल्लीनता के कारण कर्तव्य-पालन में विस्मृति तो हो सकती है, पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेह में कुटुम्बियों की और भगवत्प्रेम में भगवान की प्रधानता होती है।’
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